इन्सानियत Poem by dhirajkumar taksande

इन्सानियत

Rating: 5.0

इन्सान कहनेवालो इन्सानियत तो जान लो
बिखरा पडा है सोना आखो अपने छान लो
समशान जिन्दगीयो बर्बाद डाली डाली
धनवान कहनेवालो धनवानियत तो जान लो
दिल हो गये है मुर्दा ऐसे जैसे कब्र
हुकुमत करने वालो हुकमियत तो जान लो
जिंदगी दफन यहा और मौत घुमती है
नादान कहनेवालो नादानियत तो जान लो
हर शख्स जल रहा है तेजाबसेही अपने
असली कहनेवालो असलीयत जान लो

Sunday, September 7, 2014
Topic(s) of this poem: humanity
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