सोचा था मगर Poem by dhirajkumar taksande

सोचा था मगर

Rating: 5.0

दिल जला ही नही
धुवॉ उठने लगा
मन मंदिर मे मेरा
दम घुटने लगा

हर जंजीर तोड दु
सोचा था मगर
दिवारों से प्यार
तब जुडने लगा

हर लकीर मोड दु
सोचा था मगर
मेरे हाथों से मेरा
सर फुटने लगा

घर खुदाका जोड लु
सोचा था मगर
तिजारत मे खुदाई
खुद लुटने लगा

फिर कली खिलने दु
सोचा था मगर
अंधेरों की यारी से
साया रुठने लगा

Sunday, September 7, 2014
Topic(s) of this poem: love
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