बग़ैर एक स्त्री Poem by Arvind Srivastava

बग़ैर एक स्त्री

कितनी घबराहट और बेचैनी थी
एक स्त्री के बगैर
पहेलियाँ चक्कर काट रही थी
रसोई के इर्द-गिर्द
एक टुकड़ा बादल था
आँखों में
डब्बे में बंद समुद्र
देह में दिनचर्या भर लहू
धूंधला चांद
पत्ते जर्द़
बसंत का खौफ
उत्स में पराजय के किस्से
कविताएं नितांत अपनी
मौलिकता से कोसों दूर..!

POET'S NOTES ABOUT THE POEM
बग़ैर एक स्त्री, शीर्षक से स्पष्ट है.. कितना संघर्ष व जद्दोजहद है जीवन में
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