इतिहास की पीड़ा Poem by Aftab Alam

इतिहास की पीड़ा

Rating: 5.0

• इतिहास की पीड़ा //आफ़ताब आलम'दरवेश'
जब इतिहास को पढ़ने के लिए नहीं
समझने के लिये पढ़ा, मुझे लगा
हमें सच्चाई छुपाने और
झूठ को अपनाने की आदत सी है
या यूँ कहूँ
पढ़ने की नहीं गढ़ने की आदत सी है
मुझ में इतनी शक्ति भी नहीं कि
इतिहास की पीड़ा का बीड़ा उठा सकूँ
एक दर्द है जिसे टटोलता हूँ
एक एहसास है जिसे जिन्दा रखना चाहता हूँ
देश बँटा क्यों?
इसके पीछे मंशा क्या थी?
इसके पीछे किसका हाथ है?
क्या वो हाथ आज भी सक्रीय है? ......
हमें भूलने की बिमारी है-
उन्हें बदलने की
सच को झूठ - झूठ को सच
कुछ ऐसे भी हैं-
जिन्हें भुनाने की आदत है
'नामी बनिया का नाम बिकता है'
ये कहावत कितना सार्थक दिखता है
हमारे देश मे तीन तरह की इतिहास है
पिड़ित, मृत और चलित
अन्तिम से ही देश चल रहा है
प्रथम से देश जल रहा है
मध्यम भय पैदा कर रहा है////

Thursday, September 25, 2014
Topic(s) of this poem: teacher
COMMENTS OF THE POEM
Ramesh Rai 26 September 2014

Aaj bhi jab kisi bangladesh ya pakistan ke poet se interact hota hai to lagta hai aaj bhi hamari aatma ek. Aapki bhavnaon ka mai kadra karta hoon.

0 0 Reply
Akhtar Jawad 25 September 2014

Kutch shahr ke log bhi zalim the, Kutch mujhko marne ka shauq bhi tha. (Muneer Niazi)

1 0 Reply
Gajanan Mishra 25 September 2014

wonderful patriotism, is it? I like it. Aftabji.

1 0 Reply
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