कीड़ो Poem by Ajay Srivastava

कीड़ो

Rating: 5.0

किसी को अहम नाम का ।
ना चाहते हुए भी ईर्ष्या का।
तो कोई भ्रष्टाचार नाम के ।
तो कोई हिंसा नाम के ।

समय समय पर जाती भेद व् लिंग भेद का ।
समय समय परधार्मिक उन्माद का ।
कभी कभी युद्ध करने का ।
कभी कभी भोग विलास का।

प्रत्येक व्यक्ति किसी न किसी समय
इन कीड़ो से जुड़े रहने में अपनी शान समझता है।

कोई तो बताओ इन कीड़ो से छुटकारा पाने का उपाय।

कीड़ो
Wednesday, October 21, 2015
Topic(s) of this poem: indecency
COMMENTS OF THE POEM
Abdulrazak Aralimatti 22 October 2015

Verily, man takes interest in such insects and nourishes them and calls them his pride....10

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Rajnish Manga 21 October 2015

बुराइयाँ अच्छइयों के मुकाबले व्यक्ति को जल्दी पकडती हैं. वाकई इन कीड़ों से छुटकारा आसान नहीं. श्रेष्ठ कविता.

0 0 Reply
Ajay Srivastava 23 October 2015

धन्यवाद

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