स्त्री मुक्ती Poem by Dr. Ravipal Bharshankar

स्त्री मुक्ती

Rating: 5.0

'व्यर्थ तेरी इबादत; व्यर्थ तेरी भक्ती,
बरबाद हो रहीं हैं; तेरी सारी शक्ती.
शिक्षा से हीं होगा तेरा कायाकल्प,
शिक्षा से हीं होगी; स्त्री तेरी मुक्ती'.

शिक्षा की अतल गहरायी में; गोता लगा रहीं हुँ,
मुक्ती का मैं अपने; पता लगा रहीं हुँ.

मैं नारी; दबायी कुचली,
तल नीचा; मैं तल से नीचली.
मेरी चीता में; राख जली और,
झुठी मेरी; अर्थी निकली.
भस्मसात डर मेरा; दुनियांवालों बता रहीं हुँ,
मुक्ती का मैं अपने; पता लगा रहीं हुँ.

आज मिला मैं; अवसर जी लुं
वर्तमान मैं; सारा पी लुं.
भुत-भविष को; आग लगाकर,
आसमान मैं; सारा सी लुं.
आज; अकल और; कल हैं नकल; ये मैं जता रहीं हुँ.
मुक्ती का मैं अपने; पता लगा रहीं हुँ.

तन तरकारी; मन के भिखारी,
भेद नर-नारी; जिवन बेजां.
बोल उठेंगे; ईस धरती पर,
इंसा नाम; हिंसा का दुजा.
जो क्षर ना हो; वो अक्षर; उर्जा मैं; जगा रहीं हुँ.
मुक्ती का मैं अपने; पता लगा रहीं हुँ.

Wednesday, September 3, 2014
Topic(s) of this poem: females
POET'S NOTES ABOUT THE POEM
हमारा समाज पुरुष-साम्राज्यवाद का शिकार हैं, जिसने स्त्री को गुलाम बनाकर रख दिया हैं. अत: स्त्री-मुक्त होना जरुरी हैं. जो की स्त्री-शिक्षा से संभव हैं.
मगर स्त्री-शिक्षा; स्त्री-साक्षर होने तक ही सीमीत ना हो; नाही उसकी शिक्षा 'पुरुष-साम्राज्यवाद' से आजाद होने तक ही सीमीत हो. बल्की उसकी शिक्षा परम आजादी की घोषना होनी चाहिये!
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